कारगिल हीरो विक्रम बत्रा का 25वां शहीदी दिवस आज, दुश्मन कहते थे शेरशाह, पढ़ें उनकी दिलेरी की कहानी

हिमालय की चोटियों पर लड़ी गई कारगिल की लड़ाई के हीरो कैप्टन विक्रम पत्रा अब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। देश के लिए बहादुरी से लड़ते हुए वह शहीद हो गए थे। पाकिस्‍तान ने धोखे से साल 1999 में कारगिल की कई चोटियों पर कब्‍जा कर लिया था। भारतीय सेना ने उन चोटियों को कब्‍जा मुक्‍त कराने के लिए ऑपरेशन विजय शुरू किया था। बत्रा इस युद्ध में सबसे बड़े नायक बनकर उभरे थे। दुश्मनों से लड़ते हुए उन्होंने युद्धक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की और भारतीय सैनिकों के गौरवशाली इतिहास में अमर होकर दर्ज हो गए। 7 जुलाई को कैप्टन विक्रम बत्रा का शहीदी दिवस है। उनके जीवन पर एक नजर-

शिक्षक के घर जन्म
पालमपुर निवासी शिक्षक जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव और कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल।

सेना के लिए कॉलेज छोड़ा
विक्रम बत्रा ने सेना में जाने के लिए 1996 में सीडीएस की परीक्षा दी और इलाहाबाद में सेवा चयन बोर्ड द्वारा चयन हुआ। वह इस परीक्षा में चयनित होने वाले शीर्ष 35 उम्मीदवारों में से एक थे, भारतीय सैन्य अकादमी में शामिल होने के लिए उन्होंने अपने कॉलेज से ड्राप आउट किया।

सोपोर में मिली नियुक्ति
दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। मार्च 1998 में, उन्हें यंग ऑफिसर्स कोर्स पूरा करने के लिए इन्फैंट्री स्कूल में पांच महीने के लिए मध्य प्रदेश भेजा गया था। कोर्स पूरा होने पर, उन्हें अल्फा ग्रेडिंग से सम्मानित किया गया और जम्मू-कश्मीर में अपनी बटालियन में फिर से शामिल किया गया। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए।

‘चाहे तिरंगे में लिपटा आऊं, आऊंगा जरूर’
कारगिल युद्ध के दौरान अपनी शहादत से पहले, होली के त्यौहार के दौरान सेना से छुट्टी पर अपने घर आए, यहां अपने सबसे अच्छे दोस्त और मंगेतर डिंपल चीमा से मिले, इस दौरान युद्ध पर भी चर्चा हुई, जिस पर कैप्‍टन ने कहा कि मैं या तो लहराते तिरंगे को लहरा कर आऊंगा या फिर तिरंगे में लिपटा हुआ, पर मैं आऊंगा जरूर।

जांबाज की शहादत
भारतीय सेना ने 7 जुलाई 1999 को, प्वाइंट 4875 चोटी को कब्ज़े में लेने के लिए अभियान शुरू किया। इसके लिए भी कैप्टन विक्रम और उनकी टुकड़ी को जिम्मेदारी सौंपी गई। युद्ध के दौरान आमने-सामने की भीषण लड़ाई में कैप्टन विक्रम बत्रा ने पांच दुश्‍मन सैनिकों को पॉइंट ब्लैक रेंज में मार गिराया। इस दौरान वे दुश्‍मन स्‍नाइपर के निशाने पर आ गए और गंभीर रूप से जख्‍मी हो गए। इस युद्ध में उन्होंने सबसे आगे रहकर लगभग एक असंभव कार्य को पूरा कर दिखाया। उन्होंने जान की परवाह भी नहीं की और इस अभियान को दुश्‍मनों की भारी गोलीबारी में भी पूरा किया, लेकिन बुरी तरह घायल होने के कारण कैप्टन विक्रम बत्रा शहीद हो गए।

ये दिल मांगे मोर
पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की ज़िम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। सबसे आगे रहकर दस्ते का नेतृत्व करते हुए उन्होनें बड़ी निडरता से शत्रु पर धावा बोल दिया और आमने-सामने की लड़ाई में चार दुश्‍मनों को मार डाला। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्ज़े में ले लिया। कैप्टन विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष यह दिल मांगे मोर कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया।

कारगिल का शेर-शेरशाह
उनकी इस बहादुरी के लिए भारत सरकार ने मरणोपरांत कैप्टन विक्रम बत्रा को सर्वोच्च और सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया। कैप्टन बत्रा पर हाल ही में एक बॉलिवुड फिल्म भी बनी, जिसका नाम शेरशाह है। कारगिल युद्ध में 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त कराने के दौरान विक्रम बत्रा का कोड नाम शेरशाह था। इस विजय के बाद उन्हें कारगिल का शेर बुलाया जाने लगा था।

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